कबीर दास के दोहे जो जिन्दगी जीना सिखाते हैं | Most Popular Kabir Das Ke Dohe in Hindi

कबीर दास के दोहे अर्थ सहित - जो हमें जिन्दगी जीना सिखाते हैं। Most Popular Kabir Das Ke Dohe in Hindi

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संत कबीर दास एक अनपढ़ व्यक्ति होने के बावजूद भी उन्होंने लोगों को सोचने का नजरिया दिया और उन्हें जीवन जीना सिखाया। इसलिए हमारा मानना है, बुद्धि, विवेक और समझदारी को किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं होती, कबीर दास जी इसके उदाहरण है। कबीर दास जी अपनी इच्छा से ऐसे दोहे गाया करते थे, और उनके शिष्य उसे लिखा करते थे, कबीर दास जी को पढ़ने-लिखने नहीं आता था, परंतु उन्होंने जीवन को बहुत ही गहराई से अनुभव किया था, इसी कारण उनके गाय गए दोहों  (कबीर दास के दोहों - Kabir Das Ke Dohe) को आज बड़े पढ़े-लिखे लोग भी पढ़ते और समझते हैं। कबीर दास जी ने अपने जीवन के मूल्यों को किस तरह दोहे में संजोया है आइए आज हम उस ज्ञान की पोटली को खोलें। हमने कबीर दास जी के अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध दोहों (Most Popular Kabir Das Ke Dohe) का संग्रह किया है, हमें उम्मीद है यह आपको पसंद आएंगे।


 काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, जो कल करना है उसे आज कर लो, और जो आज करना है उसे अभी कर लो पता नहीं कब यह जीवन समाप्त हो जाए फिर तुम क्या करोगे अर्थात कुछ भी नहीं कर पाओगे।


बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं बड़ा होने से क्या लाभ, जिस प्रकार खजूर का पेड़ बड़ा होता है परंतु न तो उससे किसी पथिक को छाया मिलती है और ना ही किसी भूखे को आसानी से फल मिलता है। उसी प्रकार बड़ा व्यक्ति होने से क्या लाभ जब वह किसी की मदद न करें।


निर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरे जीव के चांम सौ, लौह भस्म हो जाए।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कभी किसी निर्बल और कमजोर को मत सताइए, उसकी हाय बहुत विनाशकारी होती है, जग जाहिर है मरे हुए जीव के खाल के जलने से लोहा तक पिघल जाता है। 


करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निशान।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, जिस प्रकार कुएं से पानी निकालने वाली रस्सी के बार-बार आने जाने से कुएं में लगे पत्थर पर निशान पड़ जाता है, ठीक उसी प्रकार निरंतर प्रयास करने से एक मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान बन जाता है।


वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।

भावार्थ: वृक्ष कभी अपना फल नहीं खाता, ना हीं नदी कभी अपना जल पीता है ठीक इसी प्रकार सज्जनों का जीवन भी दूसरों की सेवा के लिए होता है।


मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर।
श्रवण द्वार हौ संचरे, साले सकल सरीर।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, मधुर वचन औषधि के समान होता है जो किसी के हृदय की पीड़ा को कम करके सुख प्रदान करता है, जबकि कठोर वचन तीर के समान होता है जो हृदय को भेद कर रख देता है। हमारे द्वारा बोले गए शब्द कान रूपी द्वार से शरीर रुपी घर में प्रवेश करके सारे शरीर को प्रभावित करते हैं।


रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।

भावार्थ: कबीरदास जी कह रहे हैं, रात को सो कर गवाया और दिन को खाने और व्यर्थ के कामों में गवा दिया, ईश्वर द्वारा दिया यह अनमोल जीवन व्यर्थ होता जा रहा है (कौड़ियो में बदला जा रहा है)। ऐ नासमझ! इसका सदुपयोग कर वरना हीरे के समान यह अनमोल जीवन एक दिन नष्ट हो जाएगा।


दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।

भावार्थ: दुख में ईश्वर को सभी लोग याद करते हैं, लेकिन जब उन्हें सुख की प्राप्ति होती है तब वह ईश्वर को ही भूल जाते हैं। यदि मनुष्य सुख में भी ईश्वर को याद करें तो फिर उसे दुख कैसे हो सकता है।


कबीरा गर्व न कीजिए, काल गहे कर केश।
ना जाने कित मारी दे, क्या घर क्या प्रदेश।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, हे मानव! तू किस बात पर गर्व करता है, काल ने अपने हाथों में तेरे केस को पकड़े हुए हैं, ना जाने वह घर या परदेस कहां पर तुझे मार डाले।


तिनका कबहुं ना निंदिए, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, कि एक छोटे से तिनके की भी निंदा मत करो जो पांव के नीचे दब जाता है, यदि कभी उड़कर वह आंख में पड़ जाए तो बहुत दुखदाई होता है। अर्थात कभी किसी छोटे की निंदा नहीं करनी चाहिए और ना ही किसी छोटे को कमजोर समझ कर सताना चाहिए, जिस प्रकार रावण ने राम को अपने से तुक्ष समझा और वही उसके विनाश का कारण बना।


गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अंदर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।

भावार्थ: गुरु और शिष्य का संबंध कुंभार और कुंभ के समान होता है, जिस प्रकार कुम्हार घड़े पर बाहर से चोट मारता है और अंदर से हाथों के द्वारा सहारा भी देता है कि जिससे घड़ा टूट ना जाए, और चुन चुन कर उसकी खोट को निकाल देता है, ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य के अवगुणों पर चोट करके उसे दूर करता है और अंदर से सहारा भी देता है साथ ही चुन-चुन कर उसकी बुराइयों को बाहर भी करता है।


निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन साबुन, पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, निंदक (दूसरों की बुराई करने वाले) को हमेशा नजदीक रखना चाहिए, वह आपकी छोटी-छोटी बुराइयों को बताते रहते हैं और आप उन गलतियों को सुधार कर एक अच्छे इंसान बन सकते हैं। ऐसे निंदक को अपने आंगन में कुटिया बना कर रखना चाहिए जो पानी और साबुन के बिना ही आपके स्वभाव को निर्मल और स्वच्छ कर देते हैं।


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, किसी भी साधु की जाति न पूछ कर, उससे ज्ञान की बातें पूछनी चाहिए। और बाजार में तलवार की कीमत लगानी चाहिए म्यान कि नहीं। अर्थात किसी भी ज्ञानी पुरुष के वेशभूषा कुल जाति आदि पर ध्यान न दे करके उससे ज्ञान प्राप्त करनी चाहिए।


चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर।
पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए संत कबीर।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं चिंता से चतुराई, दुख से शरीर और पाप से लक्ष्मी घटती है। इन सभी से दूरी बना कर रहना चाहिए।


जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
या आपा को डाल दे, दया करे सब कोई।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यदि हमारा मन शीतल हो तो इस जग में कोई हमारा शत्रु नहीं हो सकता, और यदि हम अपने अहंकार को छोड़ दें, तो यह सारा संसार दया और प्रेम लुटाने लगता है।


ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं, हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिसे सुनकर श्रोता मनमुग्ध हो जाए (मन अपना आपा खो बैठे)। ऐसी वाणी दूसरे के हृदय को तो शांति और शीतलता प्रदान करती ही है, साथ ही स्वयं का हृदय भी निर्मल और शीतल हो जाता है।


गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, इस जग में गुरु के सामान कोई दाता नहीं और शिष्य के समान दूसरा कोई याचक नहीं। तीनों लोको की संपदा के समान ज्ञान रूपी अमृत गुरु ने हमें दान दिया।


बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं जो भी शेर का वेश धारण करके भेड़ की चाल चलता है और सियार की बोली बोलता है उसे कुत्ते अवश्य ही फाड़ कर खा जाएंगे। अर्थात जो भी व्यक्ति इस दुनिया को दिखाने के लिए बनावटी जीवन जीता है वह अवश्य ही एक दिन बड़ी संकट में पड़ता है। इसीलिए कबीरदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप में होना चाहिए। वह अपने आप में खास है उसे दूसरे की तरह बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।


बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल आराम।
मद माया और स्त्री, नहि सन्त के काम।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, बोली-ठिठोली, मस्करी, हंसी-मजाक, आराम, नशा (मदिरा-पान), माया और स्त्री संघ - ये सभी संत के काम नहीं हैं। संत हेतु यह सभी चीजें त्यागने योग्य हैं।


भेष देख मत भूलीये, पूछ लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं वेशभूषा देखकर किसी को भी संत नहीं मान लेना चाहिए, उससे ज्ञान की बातें अवश्य पूछनी चाहिए क्योंकि बिना कसोटी के सोने की पहचान नहीं होती।


सहज मिले तो दूध है, माँगि मिलै सौ पानि।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामे ऐंचातानि।

भावार्थ: कबीर दास जी का कहना है, यदि बिन मांगे मिले तो वह दूध के समान है और यदि मांगने पर मिले तो वह पानी के समान है और यदि किसी को कष्ट पहुंचा कर लिया जाए तो वह रक्त के समान त्यागने योग्य है।


अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं ना ज्यादा बोलना अच्छा है और ना ही ज्यादा चुप रहना। जिस प्रकार ज्यादा वर्षा भी अच्छा नहीं है और ना ही ज्यादा धूप। अर्थात किसी भी चीज में अति अच्छी नहीं होती इसीलिए कहा गया है- "अति सर्वत्र वर्जिते"


ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय।

भावार्थ: उच्च कुल में जन्मा व्यक्ति, जिसकी करनी ऊंची (अच्छी) ना हो, तथा वह सोने का कलश जिसमें मदिरा भरी हुई हो, यह दोनों की सभी जगह निंदा ही होती हैं।


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

भावार्थ: कबीर दास जी मन को समझाते हुए कह रहे हैं- हे मन ! इस दुनिया में सारे काम धीरे-धीरे ही होते हैं, जिस प्रकार माली के सौ घड़ा पानी के सिंचने के बाद भी फल ऋतु आने पर ही आते हैं। ठीक इसी प्रकार घबराने से कोई कार्य जल्दी नहीं होता, इसलिए हे मन ! तू धैर्य धारण करना सीख।


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, मैं जीवन भर दूसरे की बुराइयां देखता रहा, लेकिन कोई भी बुरा नहीं मिला, लेकिन जब मैंने अपने अंदर देखा तो मुझसे बुरा इस संसार में कोई नहीं था। अर्थात हम जीवन भर दूसरों की बुराइयां देखते रहते हैं, यदि हम अपने अंदर देखें तो सबसे अधिक बुराइयां हमारे अंदर हैं।


कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, कौवा किसी का धन नहीं चुराता फिर भी वह किसी को प्रिय नहीं है, और ना ही कोयल किसी को धन देता है लेकिन वह सभी को प्रिय है। क्योंकि कोयल मीठी वाणी बोलता है, और मीठी वाणी बोल कर सारे जग को अपना बना लेता है। अतः हमें सर्वदा मीठी वाणी बोलनी चाहिए।


मीठी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, हमें सर्वदा मीठी वाणी बोलनी चाहिए, जो दूसरो के मन को मोह लेती है और हृदय को शीतलता प्रदान करती है साथ ही आपका हृदय भी शीतल हो जाता है।


साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं परमात्मा मुझे इतना ही दीजिए, जिसमें मैं और मेरा परिवार भूखा ना रहे और कोई भी साधु महात्मा हमारे दरवाजे से भूखा ना जाए। मुझे अधिक संपत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है।


जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।

भावार्थ: जहां पर दया है वहां धर्म है, जहां पर लालच है वहां पर पाप अवश्य होगा। और जहां पर क्रोध है वहां पर विनाश है, जबकि जहां पर क्षमा है वहां पर ईश्वर का वास होता है।


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।

भावार्थ: कबीर दास जी कह रहे हैं, जैसा हम भोजन करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है और जैसा पानी पीते हैं वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है। अर्थात जिस प्रकार संगती का हमारे ऊपर बहुत गहरा असर पड़ता है, ठीक उसी प्रकार हमारे खान पान का विचार और व्यवहार पर बहुत बड़ा असर पड़ता है, इसलिए हमें स्वच्छ और सात्विक भोजन ही करना चाहिए।


बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िये खाया खेत।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत।

भावार्थ: कबीरदास जी कह रहे हैं, रखवाले के ना होने से चिड़िया ने खेत खा लिया है, सिर्फ थोड़ा सा खेत बचा है, रखवाले अभी से भी सचेत हो जा, वरना पूरा खेत चिड़िया नष्ट कर देंगी। अर्थात हे मनुष्य! आधी से अधिक जिंदगी तुम्हारी बीत चुकी है अब तक तुमने कुछ नहीं किया, बहुत थोड़ा सा समय तुम्हारे पास बचा है अब से भी तुम सचेत हो जाओ, वरना तुम्हारी पूरी जिंदगी बेवजह खत्म हो जाएगी।


शीलवंत सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं, शील यानी विनम्रता व्यक्ति की सबसे बड़ी पूंजी है, जो सभी गुणों की खान है, तीनों लोको की संपदा होने के बावजूद भी सम्मान विनम्रता से ही प्राप्त होती है अर्थात विनम्रता की तुलना तीनों लोको की संपत्ति से भी नहीं की जा सकती।


हमें उम्मीद है कि कबीर दास जी के लोकप्रिय दोहे (Most Popular Kabir Das ke Dohe) आपको अवश्य पसंद आए होंगे, कोई और दोहा जो आपको पसंद आता हो तो आप हमें कमेंट कर सकते हैं हम उसे इस पोस्ट में लिखने का प्रयास करेंगे। कबीर के दोहे (Kabir ke Dohe) पढ़ने और उनसे सीखने के लिए आपका सहृदय बहुत-बहुत धन्यवाद। आप हमेशा इसी प्रकार जीवन में कुछ नया सीखते रहें, ऐसी हमारी शुभकामनाएं हैं।

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3 Comments

  1. मुझे कबीर दास के दोहे बहुत पसंद है।

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  2. "बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।" इस दोहे मे पंछी के स्थान पर पंथी आना चाहिए।

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    1. धन्यवाद, आपकी सलाह सराहनीय है, आपके द्वारा बताए गए बदलाव को जारी कर दिया गया है।

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